पूरब के ‘लेनिनग्राद’ में कितनी आसान होगी कन्हैया की राह? कहीं जातीय दलदल में न फंस जाए?

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दिल्ली। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को बिहार के बेगूसराय सीट से विपक्ष का उम्मीदवार बनाया जा सकता है. हालांकि भूमिहारों के दबदबे वाली इस सीट से कन्हैया का चुनावी आगाज बहुत आसान रहनेवाला नहीं होगा. दरअसल पूरब के ‘लेनिनग्राद’ के नाम से मशहूर बेगूसराय में कन्हैया के सहारे वामपंथ बिहार में वापसी का रास्ता ढूंढ रहा है. मगर ये वापसी का रास्ता जातीय समीकरण के दलदल में फंस सकता है.

न समय है, न ही कोई वजह

कन्हैया कुमार को शायद ही भूमिहारों का व्यापक समर्थन मिले. उनके पास फिलहाल वामपंथ की जमीन तैयार करने का न समय है और न ही कोई वजह. कन्हैया की लड़ाई पूरी तरह जातीय समीकरणों पर टिकेगी. आरजेडी के समर्थन से मुसलमानों और यादवों का समर्थन उनको मिलना तय है लेकिन ये जिताऊ समीकरण नहीं है. इसके लिए कन्हैया को बीजेपी के वोट बैंक में संधमारी करनी होगी. वरना जीत की राह मुश्किल है.

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कन्हैया कुमार का घर बेगूसराय के बीहट गांव में है. उनकी मां आंगनबाड़ी में सेविका हैं जबकि पिता किसान हैं. पिता उनके वामपंथी विचारधारा के हैं. कन्हैया कुमार तेघरा विधानसभा क्षेत्र के रहनेवाले हैं. तेघरा को ‘मिनी मास्को’ कहा जा ता है. 1962 से 2010 तक ये सीट सीपीआई की कब्जे रही. कन्हैया खुद भी भूमिहार जाति से हैं. तेघरा में भूमिहार जाति का दबदबा रहा है. करीब 17 लाख वोटरों में भूमिहारों की तादाद सबसे ज्यादा है. भूमिहारों का वर्चस्व मटिहानी, बेगूसराय और तेघरा विधानसभा सीटों पर है.

जब खूनी संघर्ष का बना आखाड़ा

भूमिहारों ने बेगूसराय को वामपंथ का गढ़ बनाया और फिर ढहा भी दिया. 60 के दशक में लाल मिर्च और टाल इलाके में दलहन की खेती से जुड़े लोगों ने वामपंथी आंदोलन का साथ दिया. गरीब भूमिहारों ने भी सामंत भूमिहारों के खिलाफ हथियार उठा लिया. 70 के दशक में कामदेव सिंह अंडरवर्ल्ड डॉन के रूप में उभरा और बेगूसराय खूनी संघर्ष का अखाड़ा बन गया.

कामदेव के गुर्गों ने लोकप्रिय वामपंथी नेता सीताराम मिश्र की हत्या कर दी. इसके बावजूद चंद्रशेखर सिंह, राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे भूमिहार नेताओं के बूते सीपीआई ने इलाके में राजनीतिक दबदबा कायम रखा. 1995 तक बेगूसराय लोकसभा की सात में से पांच सीटों पर वामपंथी दलों का कब्जा था.

पूरब के ‘लेनिनग्राद’ से मोहभंग हुआ

बेगूसराय में वामपंथ के गिरने की शुरुआत तब हुई जब लालू प्रसाद ने सवर्णों के खिलाफ मुहिम चलाई. मध्य बिहार में भूमिहारों की रणवीर सेना ने माले से दो-दो हाथ किया. कई जातीय नरसंहार हुए. इससे बेगूसराय के भूमिहारों का भी वामपंथ से मोह भंग हुआ. वो कांग्रेस की तरफ झुके और राजो सिंह जैसे नेता का कद बढ़ गया. मगर 1997 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने राबड़ी सरकार का समर्थन कर राजनीतिक भूचाल ला दिया.

भूमिहारों का एक बड़ा तबका कांग्रेस से दूर हो गया और वो समता पार्टी-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के साथ चले गए. 2000 के चुनाव में लालू ने सीपीआई और सीपीएम के साथ गठबंधन कर लिया. इसी के साथ पूरब का ‘लेनिनग्राद’ से वामपंथ की समाप्ति की कहानी लिख दी गई. अब एक बार फिर पूरब के ‘लेनिनग्राद’ को कन्हैया जैसा तुरुप का पत्ता मिला है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की माने तो लालू प्रसाद और राहुल गांधी ने कन्हैया की उम्मीदवारी का समर्थन किया है. सांगठनिक प्रक्रिया में देरी हो सकती है.

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