‘काले’ इतिहास से उज्ज्वल होगा 2019 का भविष्य?

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'काले' इतिहास से उज्ज्वल होगा 2019 का भविष्य?

'काले' इतिहास से उज्ज्वल होगा 2019 का भविष्य?

दिल्ली। 26 जून 2018 की सुबह आपको हर दिन होने वाली सुबह जैसी ही आम लगी होगी…लेकिन 26 जून 1975 की सुबह एक काली घटा ओढ़ी हुई थी। सुबह के उजाले को आपातकाल के अंधेरे ने अपनी आगोश में ले लिया था।

जो अंधेरा करीब 21 महीने तक रहा और लाखों लोग जेल में ठूंस दिए गए…लेकिन 74 साल के एक बूढ़े की बुलंद आवाज़ ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से ये अंधेरा भी कांप गया और 21 महीने बाद हुए चुनाव में लोकतंत्र की एक बार फिर जीत हुई। लेकिन 43 साल बाद जब इस अंधेरे का जिक्र होता है…तो जिक्र इस बात का भी कि क्या ये अंधेरा फिर कभी लौट कर आ सकता है? क्या आपातकाल के अंधेरे का खतरा बरकरार है? सवाल का जवाब मिले ना मिले…लेकिन अतीत के इस अंधेरे के सहारे सियासी भविष्य को उज्जवल बनाने की कोशिश जरूर नज़र आ रही है।

विपक्ष कहता है अंधेरा मोदी सरकार के 4 सालों में फिर आया है…इसीलिए 2019 में उसे उजाला लाने का मौका मिले..तो बीजेपी 1975 के अंधेरे की याद दिला कर आज भी कांग्रेस को उसी अंधेरा लाने वाली मानसिकता से ग्रसित बता रही है। तो सवाल है कि क्या काले इतिहास से 2019 का भविष्य उज्जवल बनाने की कोशिश बीजेपी कर रही है? सवाल का जवाब समझने के लिए बीजेपी के काला दिवस मनाने के पीछे की वजहों और रणनीति को समझिए।

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43वीं वर्षगांठ पर काला दिवस क्यों?

अक्सर किसी भी ऐतिहासिक घटना की वर्षगांठ 25वीं या 50वीं या 75वीं या 100वीं मनाई जाती है। या फिर 40वीं वर्षगांठ या 45वीं वर्षगांठ भी हो सकती है। लेकिन बीजेपी आपातकाल की 43वीं वर्षगांठ पर काला दिवस मनाती नज़र आई वो भी 2019 लोकसभा चुनाव से पहले 2018 में। 2014 में सत्ता में आने के बाद बीजेपी ना 2014 में, ना 2015 में ना 2016 में और ना ही 2017 में आपातकाल की बरसी पर काला दिवस मनाई। हां बीजेपी ने 25 वीं वर्षगांठ के मौके पर काला दिवस 2000 में जरूर मनाई थी।

लेकिन 2019 से ठीक पहले 2018 में आपातकाल की 43 वीं वर्षगांठ पर काला दिवस यकीनन आपातकाल का डर दिखाकर बीजेपी की 2019 की सियासी लड़ाई मानी जा सकती है। बीजेपी नेता दलील देते हैं युवा पीढ़ी को आपातकाल के बारे में बताने के लिए काला दिवस मनाने का फैसला लिया गया। तो फिर सवाल है कि 2014 से 2017 तक युवा पीढ़ी को बताने के लिए काला दिवस क्यों नहीं मनाया गया।

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अब बीजेपी की रणनीति समझिए। काला दिवस पर मुंबई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण, दिल्ली में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद की प्रेस कांफ्रेंस और पटना में केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और डिप्टी सीएम सुशील मोदी के भाषण में एक बात समान थी। सभी के भाषण में 1975 की कांग्रेस की समानता आज की कांग्रेस से करते हुए कहा गया कि कांग्रेस दरअसल आपातकाल की मानसिकता से आज भी जकड़ी हुई है।

इसके पीछे कांग्रेस की ओर से मुख्य न्यायधीश के खिलाफ महाभियोग और ईवीएम को लेकर चुनाव आयोग पर सवाल की दलील दी गई। दलील देते हुए कहा गया कि कांग्रेस आज भी अपने खिलाफ किसी भी संवैधानिक संस्था को बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। लेकिन सवाल है कि 44 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस क्या वाकई आपातकाल जैसी गलती दोहरा सकती है?

अगर वाकई कांग्रेस की ऐसी मानसिकता है..तो 2005 से 2015 तक 10 सालों में उसकी ये मानसिकता क्यों नहीं ज़ाहिर हुई। ज़ाहिर है बीजेपी 1975 और 2018 की कांग्रेस को एक जैसी बताकर एक काल्पनिक तस्वीर पेश कर रही है। ताकि लोग कांग्रेस से डर जाए। यही वजह है कि अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से कर दी। लेकिन फर्क ये है कि इंदिरा गांधी के आपातकाल में 1 लाख लोग जेल गए, जबकि हिटलर के राज में 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया।

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वहीं कांग्रेस भी जनता से जुड़े मुद्दों के बजाए डर को बेचकर ही काम चलाना चाहती है।
इंदिरा की तुलना बीजेपी ने हिटलर से की, तो कांग्रेस ने मोदी की तुलना औरंगजेब से कर दी। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला बीजेपी के काला दिवस के जवाब में मोदी को औरंगजेब बताते हुए लोकतंत्र और पार्टी को बंधक बनाने का आरोप लगाया।

तो क्या औरंगजेब और हिटलर का डर दिखाकर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा या फिर बेरोजगारी, महंगाई और विकास के मुद्दे पर। वैसे 2018 का दौर 1975 से बहुत अलग है। तकनीकी क्रांति के इस दौर में जनता डरती नहीं है..बल्कि विकास के मुद्दे पर किए वादे नहीं पूरा करने के लिए नेताओं को डराने का माद्दा रखती है।

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