दिल्ली। आपातकाल की तारीख इतिहास में एक काले अध्याय के रुप में जानी जाती है। 42 साल पहले इमरजेंसी की घोषणा हुई थी और इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस का ढलान। लेकिन इस देश में सबसे कमजोर तबका जिसे दलित कहा जाता है.
उस वक्त यही कमजोर तबका इंदिरा गांधी और कांग्रेस की मजबूती में काम आया। वो भी बिहार की धरती से। जब बेलछी में दलितों का नरसंहार हुआ और आधी रात में इंदिरा गांधी हाथी पर सवार होकर दलितों के बीच पहुंची. लेकिन उस रात के बाद कांग्रेस की सुबह तो हुई लेकिन दलितों की ज़िंदगी में अंधेरा ही अंधेरा रहा और नरसंहार का सैकड़ों दौर चलता रहा।
सबसे बड़ा ‘दलित हितैषी’ होने की जंग
25 जून की तारीख एक और शख्सियत के लिए भी याद की जाती है। वीपी सिंह, जिन्होंने मंडल कमीशन लागू कर सियासत के एक नए दौर की शुरुआत की और दलितों को लेकर राजनीति में मौके तलाशने को लेकर एक नया युग शुरू हुआ, और संयोग देखिए 25 जून के आस-पास फिर से बिहार में दलितों को लेकर राजनीति अपने चरम पर है. राजनीति की रवायत वही पुरानी और दावे भी वही पुराने। हर पार्टी के नेता दलितों का सबसे बड़ा रहनुमा बनने का दावा कर रहे हैं।
आलम ये हैं कि महागठबंधन में मांझी और उदय नारायण चौधरी के बीच खुद को सबसे बड़ा दलित नेता साबित करने की होड़ लगी है। लेकिन इन सबके बीच 1975 से लेकर आज तक दलितों को लेकर सवाल एक ही दलितों पर अगर दावा है, तो फिर दलितों पर दमन के लिए ज़िम्मेदार कौन है। अगर सभी दलितों के हितैषी हैं तो फिर उनकी तस्वीर क्यों नहीं बदली? ये हम यूं ही नहीं कह रहे हैं, आंकड़े गवाही दे रहे हैं।
‘अत्याचार’ के मामले में टॉप पर यूपी-बिहार
NCRB के आंकड़ों के मुताबिक 2006 से 2016 तक दलितों के खिलाफ अपराध दर में 25% की बढ़ोतरी हुई है। अपराध में सबसे ज्यादा इजाफा आठ राज्यों में दर्ज किए गए। गोवा, केरल, दिल्ली, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड और सिक्किम में 10% की बढ़ोतरी हुई है। दलितों पर अत्याचार के मामले में उत्तर प्रदेश लिस्ट में टॉप पर है। वहीं दलितों पर अत्याचार के मामलों में बिहार दूसरे नंबर पर है।
बिहार में 2016 में दलितों पर अत्याचार के 5 हजार 701 मामले दर्ज हुए हैं। 2006 में प्रति 1 लाख दलितों पर 16.3 का अपराध आंकड़ा था। जबकि 2016 में बढ़कर प्रति 1 लाख दलितों पर 20.3 का अपराध आंकड़ा हो गया। वहीं दलितों के खिलाफ अपराध में सजा दर 2-7 फीसदी की कमी हो गई।
आखिर दलितों के कौन सोच रहा है?
ऐसे में सवाल ये है कि चुनाव आते ही दलित के इर्द-गिर्द क्यों घूमने लगती है सियासत? दलितों के हितैषी अगर सभी हैं तो फिर दलितों की स्थिति में सुधार क्यों नहीं हैं? ये सवाल इसीलिए क्योंकि आज भी 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे, 54 फीसदी कुपोषित हैं। प्रति एक हजार में 83 दलित बच्चे जन्म के एक साल के भीतर मर जाते हैं। 45 फीसदी दलित बच्चे निरक्षर रह जाते हैं। बिहार में भूमिहीन दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है। फिर भी भूमिहीनों को ज़मीन देने के लिए बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट नहीं लागू की गई। सवाल यही तक नहीं है।
दरअसल दलितों के लिए योजनाएं भी बनी और अरबों फंड का आवंटन भी हुआ है। लेकिन पैसे खर्च नहीं हो पाते हैं। 35 सालों में तक SC-ST के लिए बने फंड के 2.8 लाख करोड़ खर्च नहीं हुए। बिहार में 1998-99 और 2001-02 में 628 करोड़ और 2,393 करोड़ आवंटित हुए, लेकिन आवंटित पैसों में से शून्य खर्च हुआ या फिर कोई हिसाब नहीं है।
दलितों की ‘चिता’ पर ‘सत्ता चिंतन’
ज़ाहिर है दलितों के नाम पर सिर्फ सियासत ही होती रही है। यही वजह है कि उदय नारायण चौधरी की रैली में शामिल होने पहुंचे बाबा साहेब अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर ने साफ तौर पर दलित सांसदों और नेताओं को ‘किराए के टट्टू’ बता दिया। प्रकाश अंबेडकर के मुताबिक सांसद चुने जाने के बाद नेता दलितों के लिए आवाज़ नहीं उठाते हैं। साफ है दलितों के नेता बनने की होड़ सिर्फ वोटबैंक के लिए है और यही होड़ फिलहाल महागठबंधन में मांझी और उदय नारायण चौधरी के बीच लगी है। दोनों सत्ता में रहे या सत्ताधारी पार्टी में..तब दलितों की याद नहीं आई और अब दलितों के नेता बनने की होड़ में हैं।
वैसे एनडीए में भी दलितों के रहनुमा बनने को लेकर रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा या फिर नीतीश कुमार में अंदरखाने होड़ लगी है और इस होड़ में दलित हमेशा पीछे रहे। सवाल ये भी कि क्या दलितों के हितैषी सिर्फ दलित नेता ही हो सकते हैं। अगर ऐसा है तो वीपी सिंह कौन थे…जिन्होनें मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर पिछड़े तबके के लिए काम किया और सत्ता तक गंवाई। यानी सियासत दलितों के इर्द-गिर्द जरूर घूमती है…लेकिन मंजिल दलितों का उत्थान नहीं बल्कि सत्ता हासिल करना होता है।
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