दिल्ली। लंबे समय से धारा 377 को लेकर चल रहे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि भारत में दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंध बनाना अब अपराध नहीं है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने गुरुवार को दो व्यस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 को खत्म कर दिया।
‘हर बादल में इंद्रधनुष खोजना चाहिए’
सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को मनमाना करार देते हुए व्यक्तिगत चुनाव को सम्मान देने की बात कही है। गौरतलब है कि 17 जुलाई को शीर्ष कोर्ट ने 4 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। इसके बाद इस समुदाय के लोग पूरे देश भर में जश्न मना रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जजों ने कहा कि समाज को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए। हर बादल में इंद्रधनुष खोजना चाहिए। गौरतलब है कि इंद्रधनुषी झंडा एलजीबीटी समुदाय का प्रतीक है। सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को मनमाना बताया है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एएम खानविल्कर ने कहा कि समान लिंग वाले लोगों के बीच रिश्ता बनाना अब धारा 377 के तहत नहीं आएगा।
‘लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी’
बेंच ने माना की समलैंगिकता अब अपराध नहीं। लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी। समलैंगिक लोगों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। मैं जो हूं वो हूं। लिहाजा जैसा मैं हूं उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाए। कोई भी अपने व्यक्तित्व से बच नहीं सकता है। समाज अब व्यक्तिगतता के लिए बेहतर है। मौजूदा हालत में हमारे विचार-विमर्श विभिन्न पहलू दिखता है।
गौरतलब है कि मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ इस मामले पर फैसला किया। शीर्ष अदालत में आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जुलाई में सुनवाई पूरी हो गई थी। उसके बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था।
नाज़ फाउंडेशन ने उठाया था मामला
दरअसल, धारा 377 में अप्राकृतिक संबंधों को लेकर अपराध के तौर पर जिक्र है। इसके मुताबिक जो भी प्रकृति की व्यवस्था के विपरीत किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ संबंध स्थापित करता है, उसे उम्रकैद या दस साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है। इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई थीं। इस मुद्दे को सबसे पहले 2001 में गैर सरकारी संस्था नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में उठाया था। हाईकोर्ट ने सहमति से दो व्यस्कों के बीच समलैंगिक रिश्ते को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए इससे संबंधित प्रावधान को 2009 में गैर कानूनी घोषित कर दिया था।
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