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मिशन-2019: बिहार में कुशवाहा और मांझी दूर होना चाहती थी भाजपा

मिशन-2019: बिहार में कुशवाहा और मांझी से दूर होना चाहती थी भाजपा, नीतीश ने चली है चाल!

मिशन-2019: बिहार में कुशवाहा और मांझी से दूर होना चाहती थी भाजपा, नीतीश ने चली है चाल!

दिल्ली। 2019 चुनाव से पहले 2014 वाले एनडीए (NDA) के साथी भाजपा से दूर होते जा रहे हैं। मिशन 2019 की तैयारी में जुटी एनडीए को बिहार में बड़ा झटका लगा है। मांझी के बाद आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा ने भी एनडीए (NDA) को छोड़ महागठबंधन में शामिल हो गए हैं। लेकिन क्या बिहार की सियासत में मांझी और कुशवाहा के जाने से एनडीए की सेहत पर कोई असर पड़ेगा।

मांझी-कुशवाहा से दूरी चाहती थी भाजपा?

तीन राज्यों में बीजेपी को मिली करारी हार के बाद ऐसा जरूर लगता होगा कि बिहार में भी इसका बड़ा असर होगा। लेकिन बिहार की राजनीति में बदले गणितों पर गौर करेंगे तो हालात आपको खुद ब खुद समझ में आ जाएगा। साथ ही आपके मन में यह सवाल भी उठेगा कि क्या भाजपा भी मांझी और कुशवाहा को अपने साथ नहीं रखना चाहती थी।

तमाम राजनीतिक घटनाक्रमों को देखेंगे तो कुछ ऐसा ही लगता है। गुरुवार को महागठबंधन में शामिल होने वाले उपेंद्र कुशवाहा अपनी नवोदित पार्टी के साथ मोदी लहर में 2014 में एनडीए की नाव पर सवार हुए थे। उस वक्त बिहार एनडीए (NDA) में भाजपा, लोजपा और आरएलएसपी थी। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को भाजपा ने 3 टिकट दिया। तीनों सीट जीतने में कामयाब हो गए। इस जीत के साथ ही कुशवाहा की हैसियत बिहार की राजनीति में बढ़ गई। इसके साथ ही महत्वकांक्षा भी बढ़ने लगी।

कुशवाहा वोटरों पर उपेंद्र की पकड़ी नहीं?

2015 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा ने सीट बंटवारे के दौरान बड़ा मुंह खोला। भाजपा ने कथित रूप से उनकी सियासी हैसियत से ज्यादा सीटें दीं। लेकिन वे सिर्फ दो सीट जीतने में कामयाब हुए। साथ ही कुशवाहा वोटर को एनडीए (NDA) की ओर मोड़ नहीं पाए। इसके बाद से एनडीए (NDA) में कुशवाहा का वजूद कम होने लगा। साथ ही कुशवाहा की पार्टी में बगावत भी शुरू हो गई। पार्टी के जहानाबाद से सांसद अरुण कुमार ने अलग रास्ता अख्तियार कर दिया। पार्टी के दो विधायकों ने भी अब जेडीयू में जाने का फैसला कर लिया है। इसके साथ ही कई बड़े नेता नीतीश कुमार के साथ जाने को तैयार हैं।

कुशवाहा सीट बंटवारे को लेकर एनडीए (NDA) में मुंह बाएं खड़ा रहे। लेकिन भाजपा ने उन्हें भाव नहीं दिया। कुशवाहा बार-बार अमित शाह से समय मांगते रहे लेकिन वक्त नहीं मिला और न ही उनके एनडीए (NDA) से दूर जाने का पार्टी को कथित रूप से कोई मलाल रहा। ऐसे में कुशवाहा के महागठबंधन में जाने से एनडीए (NDA) की सेहत पर बिहार में बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला है। क्योंकि कुशवाहा की आबादी बिहार में करीब 8 फीसदी के करीब है। कुशवाहा महागठबंधन में शामिल होने के बाद कह रहे हैं कि उनका अपमान हो रहा था।

नहीं काम आया मांझी फैक्टर

वहीं, जीतनराम मांझी के साथ भी कुछ ऐसा ही हैं। बिहार में सीएम पद की कुर्सी जाने के बाद वे नीतीश कुमार से बागी हो गए थे। उसके बाद उन्होंने अलग पार्टी बना ली। 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगा की मांझी को लाने से सिम्पैथी वोट अपने पाले में किया जा सकता है। लेकिन नीतीश ने लालू और कांग्रेस से हाथ मिलाकर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया। चुनाव में मांझी फैक्टर काम नहीं किया। मांझी अपनी सीट छोड़ दूसरे उम्मीदवार को जीता नहीं पाए। इस वजह से भाजपा के सामने उनकी बारगेन पॉलिटिक्स नहीं चली। बाद में उन्होंने भी एनडीए (NDA) छोड़ दिया और महागठबंधन में चले गए। बदले में राजद ने मांझी के बेटे को विधान परिषद भेज दिया।

सियासी गलियारों में चर्चा है कि कुशवाहा और मांझी के एनडीए (NDA) से आउट करवाने में नीतीश कुमार का हाथ है। क्योंकि राजद से अलग होने के बाद बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। पूर्व में भी 17 सालों तक नीतीश कुमार भाजपा के साथ रहे हैं। इसके साथ ही बिहार में नीतीश कुमार की सरकार भाजापा की मदद से ही चलती रही हैं। ऐसे में नीतीश जब एनडीए (NDA) में आएं तो मांझी और कुशवाहा पहले थे। मांझी और कुशवाहा दोनों ने ही नीतीश कुमार से बगावत कर ही अपनी सियासी जमीन तैयार की है।

नीतीश की चाल में कौन-कौन फंसा?

लालू यादव अक्सर कहते रहे हैं कि नीतीश कुमार के पेट में दांत है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार ने यहां भी चाल चली है। सीटों को लेकर तेवर दिखा रहे कुशवाहा को उन्होंने सेट कर दिया। क्योंकि अगर कुशवाहा को ज्यादा सीटें मिलती तो भाजपा और जेडीयू को समझौता करना पड़ता। पिछले कुछ महीनों से कुशवाहा और नीतीश कुमार के बीच बिहार में तानातनी भी बढ़ गई थी। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि कुशवाहा के जाने से बिहार एनडीए (NDA) की सेहत पर कोई बहुत ज्यादा असर पड़ने वाला है। हां, अगर पासवान चले जाते तो थोड़ा असर जरूर पड़ता। लेकिन पिछले कुछ सालों का रिकॉर्ड देखेंगे तो बिहार में भाजपा और नीतीश जब साथ मिलकर चुनाव लड़े हैं तो परिणाम अच्छा रहा है।